Sunday, January 11, 2015

नींद के साये मे मैं जागा रहा


नींद के साये मे मैं जागा रहा
रात से लोरी सुन सुन कर थक गया
चाँदनी की चादर भी कम पड़ी मुझको
ख्वाब पलकों तक आकर रुक गया

ये शायद कोई इंक़लाब की दस्तक है
या आँखें ख्वाबों की मेज़बानी नहीं चाहती
मैं बेचैन हूँ नींद से आँखों की दूरी से
और सुबह है कि रात की जवानी नहीं चाहती

यह ख्वाब नींद पर मेहरबान क्यूँ है?
ऐसी क्या कशिश है बेहोशी मे?
होश मे रहूं और आए तो सोचूँ
तोड़ मरोड़ कर देखूं खामोशी मे

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