Friday, July 25, 2014
Wednesday, July 16, 2014
चलो, देश नये से बनाते हैं
एक बीज बोया थाखाद पानी मुहया थाकुछ कमी पर रह गयीबीज वृक्ष नहीं बन पाया थापुरानी भूल सुधारते हैंनया एक पौधा उगाते है चलो, देश नये से बनाते हैंईंट से ईंट जोड़ा थाजर्जर
दीवार तोड़ा थाबुनियाद कमज़ोर रह गयीमकान अधूरा पड़ा थाकुछ गज ज़मीन और खोदते हैंबुनियाद पक्की बनाते हैं चलो, देश नये से बनाते हैंलफ्ज़ से लफ्ज़ जोड़ा थापर शेर अधूरा पड़ा थाकाफिया मिलने की देरी थीअधूरी वह शायरी थीचंद
लफ्ज़ और जोड़ते हैंयह नज़्म गुनगुनाते है चलो, देश नये से बनाते हैंयह देश अभी तो युवा हैआगे बढ़ने की क्षुधा हैकुछ करने की जो ठानेंगेपूरा कर के ही मानेंगेबढ़ना आगे, नहीं रुकना हैछोटा
ना कोई भी सपना हैहर सपने को सजाते हैं चलो, देश नये से बनाते हैंनया एक पौधा उगते हैंबुनियाद पक्की बनाते हैंयह नज़्म गुनगुनाते हैंहर सपने को सजाते हैं चलो, देश नये से बनाते हैं
Friday, July 4, 2014
रखना यह बरकरार
झर झर जो बरसी बरखा
कल कल
जो करके नाद
धरणी है हर्षमय
हर्षित
हर मन है आज
तेरी कृपा के बल पे
खुश है,
बरखा, संसार
बिनती बस इतनी है कि
रखना यह
बरकरार रखना यह बरकरार
-----------------------------------------
JHAR JHAR
JO BARSI BARKHA
KAL KAL JO KARKE NAAD
DHARNI HAI
HARSHMAY
HARSHIT HAR MAN HAI AAJ
TERI KRUPA
KE BAL PE
KHUSH HAI, BARKHA,
SANSAAR
BINTI BAS
ITNI HAI KI
RAKHNA YEH BARKARAR
RAKHNA YEH BARKARAR
Sunday, June 1, 2014
रास्तों पर खड़े ये पेड़ क्या सोचते होंगे?
अपनी
किस्मत को शायद कोसते
होंगे
रास्तों
पर खड़े ये पेड़
क्या सोचते होंगे?
कभी
यहाँ उनके कुछ दोस्त
रहे होंगे
एक दूसरे से वे ढेर
बातें किए होंगे
मुद्दत
हो गयी जब से
वे बिछड़े होंगे
याद
होगी कैसे उनके हुए चिथ्डे होंगे
एक रास्ता गुज़रता है उस जगह से
अब
गाड़ियाँ गुज़रती है उस सतह से अब
गुज़रती गाड़ियों से क्या बोलते
होंगे?
रास्तों
पर खड़े ये पेड़
क्या सोचते होंगे?
गाड़ियों
से अक्सर धुआँ भी निकलता
है
धूल
उड़कर इन पेड़ों पर
चिपकता है
हरे
हरे पेड़ काला रंग
ओढ़ते हैं
गाड़ियों
के शॉरों से माहौल बनते
हैं
शॉरों
के बीच में चंद
ही पेड़ हैं
गिनती
में दो तीन या फिर
डेढ़ हैं
अकेले अपनी शाखाओं से ही बातें करते
होंगे
रास्तों
पर खड़े ये पेड़
क्या सोचते होंगे?
अपनी
किस्मत को शायद कोसते
होंगे
रास्तों
पर खड़े ये पेड़
क्या सोचते होंगे?Friday, April 4, 2014
मैं कौन हूँ?
मैं एक हाड़ मास का पुतला
पुतले में इक जान भरा है
और जिसको मैं मैं कहूँ
वह तो एक विचार भरा है
जो तय है ऐसा मंज़िल नहीं
जो तय है ऐसा रास्ता नहीं
खुद से लढ के जहाँ भी जाऊँ
मंज़िल वही है रास्ता वही
ज़माने की परवाह बहुत है मगर
ज़माने की आदतों से बग़ावत ना होती
अपने विचार अगर मुझपे ना थोपे
तो ज़माने से कोई शिकायत ना होती
कई दिन बाद आईने को गौर से देखा
उसमे मैं था भी और मैं था भी नहीं
मुझे खुद को बचाके रखना होगा
खुद को रोटी से ना हार जाऊँ कहीं
यही तीन शेरों में मैं हूँ
मेरी ज़िंदगी भी एक नज़्म भरा है
और जिसको मैं मैं कहूँ
वह तो एक विचार भरा है
मैं एक हाड़ मास का पुतला
पुतले में इक जान भरा है
और जिसको मैं मैं कहूँ
वह तो एक विचार भरा है
YouTube Channel
पुतले में इक जान भरा है
और जिसको मैं मैं कहूँ
वह तो एक विचार भरा है
जो तय है ऐसा मंज़िल नहीं
जो तय है ऐसा रास्ता नहीं
खुद से लढ के जहाँ भी जाऊँ
मंज़िल वही है रास्ता वही
ज़माने की परवाह बहुत है मगर
ज़माने की आदतों से बग़ावत ना होती
अपने विचार अगर मुझपे ना थोपे
तो ज़माने से कोई शिकायत ना होती
कई दिन बाद आईने को गौर से देखा
उसमे मैं था भी और मैं था भी नहीं
मुझे खुद को बचाके रखना होगा
खुद को रोटी से ना हार जाऊँ कहीं
यही तीन शेरों में मैं हूँ
मेरी ज़िंदगी भी एक नज़्म भरा है
और जिसको मैं मैं कहूँ
वह तो एक विचार भरा है
मैं एक हाड़ मास का पुतला
पुतले में इक जान भरा है
और जिसको मैं मैं कहूँ
वह तो एक विचार भरा है
YouTube Channel
Tuesday, December 24, 2013
आज का गब्बर
अभिनेताओं से बड़ा ये अभिनेता है
आज का गब्बर डाकू नहीं, नेता है
लूटने की हमे क्या ज़रुरत है इसे
ये मिलने से पहले जो ले लेता है
वह घोड़े पे आता था, ये गाड़ी में आता है
वह पहाड़ी पे रहता था, ये बंगले में रहता है
वह होली पे लूटने आता था
ये बिना आये ही लूट लेता है
वह खाकी पहनता था, ये खादी पहनता है
वह अनाज ही लूटता था, ये चारा भी लूटता है
खुद के वज़ूद को बचाने की खातिर
वह हाथ काटता था, यह देश काटता है
लोगों के सपनो को अपना कहके बेचे, ऐसा बिक्रेता है
आज का गब्बर डाकू नहीं, नेता है
लूटने की हमे क्या ज़रुरत है इसे
ये मिलने से पहले जो ले लेता है
आज का गब्बर डाकू नहीं, नेता है
लूटने की हमे क्या ज़रुरत है इसे
ये मिलने से पहले जो ले लेता है
वह घोड़े पे आता था, ये गाड़ी में आता है
वह पहाड़ी पे रहता था, ये बंगले में रहता है
वह होली पे लूटने आता था
ये बिना आये ही लूट लेता है
वह खाकी पहनता था, ये खादी पहनता है
वह अनाज ही लूटता था, ये चारा भी लूटता है
खुद के वज़ूद को बचाने की खातिर
वह हाथ काटता था, यह देश काटता है
लोगों के सपनो को अपना कहके बेचे, ऐसा बिक्रेता है
आज का गब्बर डाकू नहीं, नेता है
लूटने की हमे क्या ज़रुरत है इसे
ये मिलने से पहले जो ले लेता है
Saturday, November 9, 2013
घड़ी और कॅलंडर
सुबह सवेरे आज मैने, जब आईना
देखा
रह गया हैरान
जब खुद को ही ना देखा
दिखा तो बस
एक घड़ी और कॅलंडर
बातें कर रहे
थे, उस
आईने के अंदर
घड़ी बोला, कॅलंडर भाई,
अब तू तो
उतर जाएगा
तेरी जगह पर
कोई दूसरा, अब यहाँ
पर आएगा
कैसा लग रहा
है तुझे, होने वाली इस बात
पर?
कहना चाहेगा कुछ तू, बदल
रहे हालात पर?
दुखी मन से कॅलंडर
बोला, कहूँ मैं क्या, घड़ियाल
उम्र मेरी तो होती
है, बस एक ही साल
एक बात है,
खुश था बहुत,
जिस दिन मैं आया था
नई आस एक
सब के दिल में, मैने
जगाया था
हुआ था स्वागत
मेरा तो खूब
आतिशबाज़ी से
नाच रहे थे,
झूम रहे थे
लोग बहुत मस्ती
से
सोचा मैं,
ऐसा है अगर
आगाज़ मेरे जीवन
का
होने वाला है
फिर खूब अंदाज़ मेरे जीवन
का
जाते जाते पर
लगता है, कमी बहुत
है रह गयी
बहुतों की ख्वाहिशें
जो, ख्वाहिशें ही
रह गयी
पता नहीं इतिहास
में, कैसा दर्ज़ मैं हुंगा
डर है कहीं धोखेबाज़
तो नहीं कहलाऊंगा
मुस्कराते घड़ी
बोला, खुद को
दोष क्यूँ देता
है?
नहीं तेरा जो
काम उसके बिगड़ने
से क्यूँ रोता
है?
सही महिना दिन बताना,
तेरे हाथ इतना
ही था
देख उसे दिशा चुनने का काम
मानव का ही था
तुझ से पहले
जितने भी, टँगे
थे इस दीवार
पर
हाल दिल का
सभी का था,
ऐसा ही इस
मोड़ पर
खुशी खुशी चला
जा रख मत,
मन पर कोई
बोझ
अच्छे बुरे सभी
वजह से, याद
करेंगे लोग
पड़ी नज़र फिर तभी अचानक घड़ी की मेरी ओर
बोला वह, "है मानव यहाँ
रहो चुप, कॅलंडर"
चकित मैं देखा मुड़के
तो, घड़ी कॅलंडर दोनो थे
सुबह सवेरे आज,
गुपचुप गुमसुम दोनो थे
Subscribe to:
Posts (Atom)
पड़ोसी
आग लगी थी, चारों और धुआँ धुआँ था कहाँ जाता, इधर खाई तो उधर कुआँ था लूटाके सब हसा मैं बैठ अंगारों पर राख पर बैठ पड़ोसी जो रो रहा था
-
देखा है कई बार सूरज को पीला पड़ते हुए, देखा भी है तेरे चेहरे को गुलाबी रंग ओढ़ते हुए, यह आलम है अब के याद नहीं श्याम होती की नहीं, प...
-
आग लगी थी, चारों और धुआँ धुआँ था कहाँ जाता, इधर खाई तो उधर कुआँ था लूटाके सब हसा मैं बैठ अंगारों पर राख पर बैठ पड़ोसी जो रो रहा था
-
लेखक: महाराणा गणेश मैं एक वट वृक्ष हूँ । कुछ लोग यहाँ मुझे बरगद भी कहते हैं । मेरी स्थिति समझने के लिए मेरे आस पास की स्थिति के बारे में जा...