Wednesday, July 16, 2014

चलो, देश नये से बनाते हैं

एक बीज बोया थाखाद पानी मुहया थाकुछ कमी पर रह गयीबीज वृक्ष नहीं बन पाया थापुरानी भूल सुधारते हैंनया एक पौधा उगाते है              चलो, देश नये से बनाते हैंईंट से ईंट जोड़ा थाजर्जर दीवार तोड़ा थाबुनियाद कमज़ोर रह गयीमकान अधूरा पड़ा थाकुछ गज ज़मीन और खोदते हैंबुनियाद पक्की बनाते हैं           चलो, देश नये से बनाते हैंलफ्ज़ से लफ्ज़ जोड़ा थापर शेर अधूरा पड़ा थाकाफिया मिलने की देरी थीअधूरी वह शायरी थीचंद लफ्ज़ और जोड़ते हैंयह नज़्म गुनगुनाते है           चलो, देश नये से बनाते हैंयह देश अभी तो युवा हैआगे बढ़ने की क्षुधा हैकुछ करने की जो ठानेंगेपूरा कर के ही मानेंगेबढ़ना आगे, नहीं रुकना हैछोटा ना कोई भी सपना हैहर सपने को सजाते हैं           चलो, देश नये से बनाते हैंनया एक पौधा उगते हैंबुनियाद पक्की बनाते हैंयह नज़्म गुनगुनाते हैंहर सपने को सजाते हैं           चलो, देश नये से बनाते हैं

Friday, July 4, 2014

रखना यह बरकरार



झर झर जो बरसी बरखा 
कल कल जो करके नाद 
धरणी है हर्षमय 
हर्षित हर मन है आज 

तेरी कृपा के बल पे 
खुश है, बरखा, संसार 
बिनती बस इतनी है कि 
            रखना यह बरकरार  
            रखना यह बरकरार 
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JHAR JHAR JO BARSI BARKHA

            KAL KAL JO KARKE NAAD
DHARNI HAI HARSHMAY
HARSHIT HAR MAN HAI AAJ

TERI KRUPA KE BAL PE
            KHUSH HAI, BARKHA, SANSAAR
BINTI BAS ITNI HAI KI
            RAKHNA YEH BARKARAR
RAKHNA YEH BARKARAR
 

  

Sunday, June 1, 2014

रास्तों पर खड़े ये पेड़ क्या सोचते होंगे?

अपनी किस्मत को शायद कोसते होंगे
रास्तों पर खड़े ये पेड़ क्या सोचते होंगे?

कभी यहाँ उनके कुछ दोस्त रहे होंगे
एक दूसरे से वे ढेर बातें किए होंगे

मुद्दत हो गयी जब से वे बिछड़े होंगे
याद होगी कैसे उनके हुए चिथ्डे होंगे

एक रास्ता गुज़रता है उस जगह से अब
गाड़ियाँ गुज़रती  है उस सतह से अब

गुज़रती गाड़ियों से क्या बोलते होंगे?
रास्तों पर खड़े ये पेड़ क्या सोचते होंगे?

गाड़ियों से अक्सर धुआँ भी निकलता है
धूल उड़कर इन पेड़ों पर चिपकता है

हरे हरे पेड़ काला रंग ओढ़ते हैं
गाड़ियों के शॉरों से माहौल बनते हैं

शॉरों के बीच में चंद ही पेड़ हैं
गिनती में दो तीन या फिर डेढ़ हैं

अकेले अपनी शाखाओं से ही बातें करते होंगे
रास्तों पर खड़े ये पेड़ क्या सोचते होंगे?

अपनी किस्मत को शायद कोसते होंगे
रास्तों पर खड़े ये पेड़ क्या सोचते होंगे?

Friday, April 4, 2014

मैं कौन हूँ?

मैं एक हाड़ मास का पुतला
पुतले में इक जान भरा है
और जिसको मैं मैं कहूँ
वह तो एक विचार भरा है


जो तय है ऐसा मंज़िल नहीं
जो तय है ऐसा रास्ता नहीं
खुद से लढ के जहाँ भी जाऊँ
मंज़िल वही है रास्ता वही


ज़माने की परवाह बहुत है मगर
ज़माने की आदतों से बग़ावत ना होती
अपने विचार अगर मुझपे ना थोपे
तो ज़माने से कोई शिकायत ना होती


कई दिन बाद आईने को गौर से देखा
उसमे मैं था भी और मैं था भी नहीं
मुझे खुद को बचाके रखना होगा
खुद को रोटी से ना हार जाऊँ कहीं


यही तीन शेरों में मैं हूँ
मेरी ज़िंदगी भी एक नज़्म भरा है
और जिसको मैं मैं कहूँ
वह तो एक विचार भरा है


मैं एक हाड़ मास का पुतला
पुतले में इक जान भरा है
और जिसको मैं मैं कहूँ
वह तो एक विचार भरा है

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Tuesday, December 24, 2013

आज का गब्बर

अभिनेताओं से बड़ा ये अभिनेता है
आज का गब्बर डाकू नहीं,  नेता है
लूटने की हमे  क्या ज़रुरत है इसे
ये मिलने से पहले जो ले लेता है

वह घोड़े पे आता था, ये गाड़ी में आता है
वह पहाड़ी पे रहता था, ये  बंगले में रहता है
वह होली पे लूटने आता  था
ये बिना आये ही लूट लेता  है

वह खाकी पहनता था, ये खादी पहनता है
वह अनाज ही लूटता था, ये चारा भी लूटता है
खुद के वज़ूद को बचाने की खातिर
वह हाथ काटता था, यह देश काटता है

लोगों के सपनो को अपना कहके बेचे, ऐसा बिक्रेता है
आज का गब्बर डाकू नहीं,  नेता है
लूटने की हमे  क्या ज़रुरत है इसे
ये मिलने से पहले जो ले लेता है






Saturday, November 9, 2013

घड़ी और कॅलंडर

सुबह सवेरे आज मैने, जब आईना देखा
रह गया हैरान जब खुद को ही ना देखा
दिखा तो बस एक घड़ी और कॅलंडर
बातें कर रहे थे, उस आईने के अंदर

घड़ी बोला, कॅलंडर भाई, अब तू तो उतर जाएगा
तेरी जगह पर कोई दूसरा, अब यहाँ पर आएगा
कैसा लग रहा है तुझे, होने वाली इस बात पर?
कहना चाहेगा कुछ तू, बदल रहे हालात पर?

दुखी मन से कॅलंडर बोला, कहूँ मैं क्या, घड़ियाल
उम्र मेरी तो होती है, बस एक ही साल
एक बात है, खुश था बहुत, जिस दिन मैं आया था
नई आस एक सब के दिल में, मैने जगाया था

हुआ था स्वागत मेरा तो खूब आतिशबाज़ी से
नाच रहे थे, झूम रहे थे लोग बहुत मस्ती से
सोचा मैं, ऐसा है अगर आगाज़ मेरे जीवन का
होने वाला है फिर खूब अंदाज़ मेरे जीवन का    

जाते जाते पर लगता है, कमी बहुत है रह गयी
बहुतों की ख्वाहिशें जो, ख्वाहिशें ही रह गयी
पता नहीं इतिहास में, कैसा दर्ज़ मैं हुंगा
डर है कहीं धोखेबाज़ तो नहीं कहलाऊंगा

मुस्कराते घड़ी बोला, खुद को दोष क्यूँ देता है?
नहीं तेरा जो काम उसके बिगड़ने से क्यूँ रोता है?
सही महिना दिन बताना, तेरे हाथ इतना ही था
देख उसे दिशा चुनने का काम मानव का ही था

तुझ से पहले जितने भी, टँगे थे इस दीवार पर
हाल दिल का सभी का था, ऐसा ही इस मोड़ पर
खुशी खुशी चला जा रख मत, मन पर कोई बोझ
अच्छे बुरे सभी वजह से, याद करेंगे लोग

पड़ी नज़र फिर तभी अचानक घड़ी की मेरी ओर
बोला वह, "है मानव यहाँ रहो चुप, कॅलंडर"
चकित मैं देखा मुड़के तो, घड़ी कॅलंडर दोनो थे
सुबह सवेरे आज, गुपचुप गुमसुम दोनो थे

पड़ोसी

आग लगी थी, चारों और धुआँ धुआँ था कहाँ जाता, इधर खाई तो उधर कुआँ था लूटाके सब हसा मैं बैठ अंगारों पर राख पर बैठ पड़ोसी जो रो रहा था