सुबह सवेरे आज मैने, जब आईना
देखा
रह गया हैरान
जब खुद को ही ना देखा
दिखा तो बस
एक घड़ी और कॅलंडर
बातें कर रहे
थे, उस
आईने के अंदर
घड़ी बोला, कॅलंडर भाई,
अब तू तो
उतर जाएगा
तेरी जगह पर
कोई दूसरा, अब यहाँ
पर आएगा
कैसा लग रहा
है तुझे, होने वाली इस बात
पर?
कहना चाहेगा कुछ तू, बदल
रहे हालात पर?
दुखी मन से कॅलंडर
बोला, कहूँ मैं क्या, घड़ियाल
उम्र मेरी तो होती
है, बस एक ही साल
एक बात है,
खुश था बहुत,
जिस दिन मैं आया था
नई आस एक
सब के दिल में, मैने
जगाया था
हुआ था स्वागत
मेरा तो खूब
आतिशबाज़ी से
नाच रहे थे,
झूम रहे थे
लोग बहुत मस्ती
से
सोचा मैं,
ऐसा है अगर
आगाज़ मेरे जीवन
का
होने वाला है
फिर खूब अंदाज़ मेरे जीवन
का
जाते जाते पर
लगता है, कमी बहुत
है रह गयी
बहुतों की ख्वाहिशें
जो, ख्वाहिशें ही
रह गयी
पता नहीं इतिहास
में, कैसा दर्ज़ मैं हुंगा
डर है कहीं धोखेबाज़
तो नहीं कहलाऊंगा
मुस्कराते घड़ी
बोला, खुद को
दोष क्यूँ देता
है?
नहीं तेरा जो
काम उसके बिगड़ने
से क्यूँ रोता
है?
सही महिना दिन बताना,
तेरे हाथ इतना
ही था
देख उसे दिशा चुनने का काम
मानव का ही था
तुझ से पहले
जितने भी, टँगे
थे इस दीवार
पर
हाल दिल का
सभी का था,
ऐसा ही इस
मोड़ पर
खुशी खुशी चला
जा रख मत,
मन पर कोई
बोझ
अच्छे बुरे सभी
वजह से, याद
करेंगे लोग
पड़ी नज़र फिर तभी अचानक घड़ी की मेरी ओर
बोला वह, "है मानव यहाँ
रहो चुप, कॅलंडर"
चकित मैं देखा मुड़के
तो, घड़ी कॅलंडर दोनो थे
सुबह सवेरे आज,
गुपचुप गुमसुम दोनो थे
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