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Saturday, December 27, 2014
Wednesday, December 17, 2014
यह कौन मरा यह कौन मारा
यह कौन मरा यह कौन मारा, यह कौन जीता यह कौन हारा
इंसानियत यूँ दफ़न हो गयी कि तुम भी मरे मैं भी मरा
इंसानियत यूँ दफ़न हो गयी कि तुम भी मरे मैं भी मरा
Tuesday, September 30, 2014
उफ्फ, यह तेरी झूठी मुस्कान
मासूमियत से कोसो
दूर, समेटी अभिमान
धड़कनो में पर
भर देती है
प्राण
तेरी झूठी
मुस्कान, तेरी झूठी मुस्कान
आँखों में चमक,
गालों में उठान
दुनिया की उठापटक
से अंजान
तेरी झूठी
मुस्कान, तेरी झूठी मुस्कान
मैं जानता हूँ यह
नकली है
मैं जानता हूँ यह
खोखली है
मेरे आँखों को पर
खूब भाती है
इसिसे माहॉल में रोशनी
है
बिन इसके, बाद का
हर पल कच्चा
लगता है
तेरे चेहरे से झाँकता
कोई बच्चा लगता
है
झूठी ही सही
तू मुस्कुराती रहे
यह झूठापन तुझी पे
अच्छा लगता है
भले मेरी रहे
तुझसे कई गुमान
अड़चन है, पर
बन गयी है
पहचान
तेरी झूठी
मुस्कान, तेरी झूठी मुस्कान
मेरी कविता करे तेरा
सम्मान
दिल में उतरने
का सुनाके फरमान
उफ्फ, यह तेरी
झूठी मुस्कान, तेरी झूठी
मुस्कान
Sunday, September 14, 2014
बंजारा मन बिचलित हुआ जाए
श्रम का उचित जो मोल मिल ना पाए
दक्षता का कद्र जो कोई कर ना पाए
एक नये ठिकाने की तलाश में
बंजारा मन बिचलित हुआ जाए
Tuesday, August 12, 2014
एक मज़दूर का फ़लसफ़ा
सुबह की नरम धूप जब ज़मीन पे
बिछ रही थी
मुझे छाँव के बिछौने की तलब
महसूस हो रही थी
एक इमारत के नीचे बगीचे में
ज़रा सा करवट लिया
पर धीरे धीरे धूप की चादर शरीर
को ओढ़ रही थी
कहने को तो सुबह ही थी
पर मेरा आधा दिन गुजर चुका
था
आधी दुनिया अभी रोज़ी की तलाश
में निकली थी
और मैं काम कर कर के थक चुका
था
ज्यूँ ही चादर मेरे चेहरे को
ओढ़ लेती
मैं छाँव के बिछौने से गिर
जाता
उठकर चला जाता एक और बिछौने
की तलाश में
पर मैं छाँव के पीछे और धूप
मेरी तलाश में
उस धूप और छाँव के बीच एक संकीर्ण
रेखा थी
एक ऐसी रेखा जो हर लम्हा बदलती
अपनी जगह थी
शायद यह कहना चाहती थी.. हाँ,
शायद यही कहना चाहती थी
कि कुदरत को खबर नहीं, मुझे
धूप की गरज है या नहीं
पर जिसकी भी चाहत रहे,
मुझे उसकी चाह मे
आगे बढ़ते रहना होगा
Sunday, August 3, 2014
गब्बर: मैं बड़ा डाकू हूँ या वह है
कितने आदमी थे?
कितने आदमी थे?
कितने आदमी थे, पर कोई न आया
इंसानियत तो किसी में ना समाया
रोती रही वह, पिलाघति रही वह
कुछ शैतानों ने उसको जलाया
दहेज़ के खातिर जल गयी वह
जाने कब से है जल रही वह
तीर हमारे जो दिल में लगी है
सदियों से हमको है खल रही वह
सदियों से इसको जो रोक न पाया
कहता है पर "भागो गब्बर आया"
अरे, मैं बड़ा डाकू हूँ या वह है
जिसने ज़मीर अपनी बेचकर खाया
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